Wednesday, June 23, 2021

पृथ्वीराज तोमर(Prathviraj Tomar)

पृथ्वीराज तोमर

पृथ्वीराज तोमर (1167-1189 ई.) दिल्ली का तोमर शासक था। पृथ्वीराज तोमर अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान के समकालीन राजा था, नाम में समानताएं होने के कारण जनता समझने लगी की चौहानो का राज्य दिल्ली पर भी है। मदनपाल तोमर के पश्चात दिल्ली के राजसिंहासन पर पृथ्वीराज तोमर बैठे।

अबुल फजल द्वारा दी गई वंशावली के अनुसार पृथ्वीराज तोमर का राज्य 1189 ई. तक रहा और उसने 22 वर्ष 2 माह 16 दिन तक शासन किया। इसके विपरीत इन्द्रप्रस्थ प्रबंध का लेखक उसे 24 वर्ष 3 माह 6 दिन 17 घडी शासन करना बतलाता है। इन्द्रप्रस्थ प्रबंध के अनुसार पृथ्वीराज तोमर का राज्य 1191 तक होता है परन्तु उसका उत्तराअधिकार चाहड़पाल जिसकी मुद्रायें प्राप्त होती है उसका केवल 1 वर्ष का राज्यकाल मिलता है जो ठिक प्रतित नहीं होता। द्विवेदी के अनुसार पृथ्वीराज तोमर ने 1167 ई. में दिल्ली का शासन ग्रहण किया तथा 1189 ई. तक वे शासन करते रहे। पृथ्वीराज तोमर की मुद्राएँ प्राप्त होती है जिनके एक ओर भाले सहित अश्वारोही के साथ 'पृथ्वीराज देव ' और दुसरी तरफ नन्दी के ऊपर 'असावरी सामन्तदेव' लिखा प्राप्त होता है। इसका उल्लेख ढक्कर फेरू की द्रव्य परीक्षा और कनिंगम ने भी किया है। यह तो सर्वविदित है कि मदनपाल के पश्चात दिल्ली के राजा पृथ्वीराज तोमर थे जो कि अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान के समकालीन थे।

पृथ्वीराज के राज्यारोहण के समय शाकम्भरी पर उसका भांजा अपरगांगेय शासन कर रहा था। इसी बीच विग्रहराज के भाई जगदेव का पुत्र पृथ्वीभट्ट जिसने अपने मामा चित्तोड के राजा गुहिलोत किल्लण के सहयोग से हांसी पे हमला कर दिया और 1167 ई. में उस पे अधिकार कर लिया और उस गढ पर अपने मामा किल्लण को छोडकर स्वयं शाकम्भरी पर आक्रमण कर दिया। उस समय दिल्ली के तोमर राजा पृथ्वीराज ने उसे रोकने का प्रयास किया और पृथ्वीराज तोमर के सामंत हांसी के राजा वास्तुपाल से पृथ्वीभट्ट का युद्ध हुआ था। वास्तुपाल पराजित हुआ और पृथ्वीभट्ट ने शाकम्भरी पे हमला कर अपरगांगेय को मार डाला और 1168 ई. में शाकम्भरी का राजा बना। अपरगांगेय का छोटा भाई नागार्जुन भागकर दिल्ली आ गया। पृथ्वीभट्ट की मृत्यु के बाद सोमेश्वर शाकम्भरी का राजा बना और उसकी मृत्यु के बाद अबुल फजल के अनुसार दिल्ली के राजा पृथ्वीराज तोमर का भांजा नागार्जुन कुछ समय के लिए शाकम्भरी के राज सिंहासन बैढा था, इसलिए 1177 ई. में पृथ्वीराज चौहान और नागार्जुन के बीच संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में पृथ्वीराज तोमर ने नागार्जुन की सहायता के लिए अपने सामन्त देव भट्ट को भेजा। नागार्जुन ने गुडपुर के गढ में अपनी सेना एकत्र की और वहाँ से अभयगढ पर आक्रमण किया। राय पिथोरा की माता कर्पुरीदेवी के नेतृत्व में भुवनैकमल्ल ओर कैमास सहित चौहान सेना ने गुडपुर (गुडगाँव) को घेर लिया और नागार्जुन किसी तरह बचकर दिल्ली भाग गये और तोमर सामंत देवभट्ट और उसके समस्त सैनिक युद्ध में मारे गए।

सन् 1189 ई. में पृथ्वीराज तोमर की मृत्यु हो गई। उन्होंने जीवन पर्यन्त अपरगांगेय और नागार्जुन के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर पृथ्वीभट्ट, सोमेश्वर, कर्पुरीदेवी, कैमास और भुवनैकमल्ल से अनेक वर्षों तक संघर्ष किया। संभवतः वे इसमें असफल रहे। उनकी इस असफलता का प्रभाव तोमर साम्राज्य की दृढता पर पड़ा। इससे पूर्व 1177 ई. के पश्चात उत्तर-पश्चिम भारत विशृंखल राजाओं का संघ रह गया था, जो दिल्ली के तोमर राजा को अपना मुखिया मानता था। पृथ्वीराज तोमर के चौहानों के साथ लम्बे संघर्ष के परिणामस्वरुप यह नियन्त्रण शिथिल अवश्य दिखाई देता है। पृथ्वीराज तोमर की मृत्यु के पश्चात 1189 ई. में दिल्ली के राजसिंहासन पर उनका पुत्र चहाडपाल तोमर बैठा।

                                         🙏करणसिंह बोरज तँवरान🙏

सन्दर्भ- 

 1. महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर, तंवर (तोमर) राजवंश का राजनीतिक एवम सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ-74

2.इन्द्रप्रस्थ प्रबंध, सं.शर्मा,दशरथ, राज.प्रा.वि.प्र.,जोधपुर, आर्को.सर्वे.रि.भाग-।, पृष्ठ-149

3. द्विवेदी, हरिहर निवास, दिल्ली के तोमर, पृष्ठ-264

4. नाहटा, 5.सं.अगरचन्द,फेरूरचित, रत्नपरीक्षादि,सप्त-ग्रंथ सग्रंह, पृष्ठ-31

6..महेन्द्र सिंह खेतासर तोमर राजवंश का राजनीतिक एवम सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ-75

7. दशरथ शर्मा, पृथ्वीराज चौहान तृतीय और उसका युग, पृष्ठ-19

8..द्विवेदी, हरिहर निवास, दिल्ली के तोमर, पृष्ठ-271

Sunday, June 13, 2021

राव केसरीसिंह तंवर[सिंहराज]

झज्जर के नवाब और बेगम द्वारा पाटन के राव केसरीसिंह तंवर को सिंहराज कि उपाधी देना।

Rao kesari singh [Sinhraj]

सन् 1650 ई के आसपास पाटन के राव केसरीसिंह तंवर थे, उनके बारे मे कहा जाता है कि वो शारीरिक रूप बलिष्ठ, साहसी और निडर राजा थे। उनके पास अपने 100 लडाका सिपाही थे, जिनकी मदद से वो अक्सर राजस्थान से दिल्ली दरबार को जाने वाले कर(धन) को बीच मे ही लूट लिया करते थे, इस लूट को वो दुसरे राज्य के सीमा मे जाकर अंजाम देते थे ताकि बादशाह को उन पर शक ना हो। केसरीसिंह को शिकार खेलने का बहूत शोक था एक बार शिकार करते करते वो झज्जर के नवाब के राज्य मे प्रवेश कर गए (उस समय पाटन कि सीमा झज्जर राज्य से मिलती थी)। वहा केसरीसिंह नवाब के शेर से निहत्थे भिड गए और अपने हाथो से शेर को चीरकर मार दिया। ये बात जब नवाब को पता चली तो उसने पाटन पर हमले कि तैयारी की लेकिन बेगम ने मना कर दिया कहा कि जिसने अपने बलशाली और खुंखार शेर को अपने हाथो से मार दिया हो वो कितना निडर होगा, केसा दिखता होगा? एसे राजा से तो मित्रता करनी चाहिए। तब नवाब ने केसरीसिंह को पत्र लिखकर कहलवाया कि या तो हमसे युद्ध करने के लिए तैयार रहो या फिर अकेले झज्जर आकर हमसे मिलो। फिर केसरीसिंह अकेले ही झज्जर पहुंच गए, सेवक ने दरीखाने मे रहने की व्यवस्था कर दी। केसरीसिंह थके हुए थे और काफी देर इंतजार करने के बाद तलवार और पाग बगल मे रख कर सो गए। थोडी ही देर बाद नवाब और बेगम दरीखाने मे पहुंच गए, केसरीसिंह को सोते हुए देखकर बेगम बोली कि देखो केसे सो रहा है जेसे जंगल मे शेर बेखौफ होकर सोता है, वास्तव मे असली शेर तो ये केसरीसिंह है जो हथियार दुर रखकर दुश्मन के घर मे बेखौफ होकर सो रहा है मुझे कोई संका नही कि अपना शेर इन्होने नही मारा हो, उनकी बाते सुनकर केसरीसिंह जग गए। तब बेगम ने राव से कहा असली शेर वो नही जिसे आपने मारा असली शेर तो आप हो, आपको को पता था कि आपके साथ  कुछ भी गलत हो सकता हे फिर भी अकेले आ गए और दुश्मन के बाडे मे बेखौफ होकर सो गए तब राव कि निडरता को देखकर नवाब और बेगम ने खुश होकर केसरीसिंह तंवर को सिंहराज की उपाधि दी।

                                    🙏करणसिंह बोरज तँवरान🙏

पाटन राव केसरीसिंह तंवर (सिंहराज)

पिता का नाम- राव प्रतापसिंह पाटन 

उत्तराधिकारी- राव फतेहसिंह पाटन 

संताने- केसरीसिंह जी के 13 पुत्रो का विवरण मिलता है।

  1. कुंवर अजायब सिंह
  2. कुंवर माधो सिंह
  3. कुंवर भवानी सिंह
  4. राव फतेह सिंहजी 
  5. कुंवर जुझार सिंह
  6. कुंवर हिम्मत सिंह
  7. कुंवर कुशल सिंह
  8. कुंवर हिंदू सिंह
  9. कुंवर पुरुषोत्तम सिंह
  10. कुंवर राम सिंह
  11. कुंवर प्रेम सिंह
  12. कुंवर किशन सिंह
  13. कुंवर कीरत सिंह
इन्ही के वंशज वर्तमान पाटन, किशोरपुरा, काचरेडा, कंवर की नांगल, रायपुर, कोला की नांगल, डोकन, सिहोड आदि इन 8 गाँवो मे निवास करते है।
                                          🙏करणसिंह बोरज तँवरान🙏

Saturday, June 12, 2021

रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र आनंद राव का वंशवृक्ष एवम परिचय

रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र आनंद राव का वंशवृक्ष 

 रानी लक्ष्मीबाई (झाँसी)

दामोदर राव[आनंद राव] (दत्तक पुत्र)

   लक्ष्मण राव 

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      कृष्ण राव                           चंद्रकांत राव 

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          ।                ।                 ।                ।

                           अक्षय राव        अतुल राव     शांतिप्रमोद

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        ।                                                  

मनोहर राव                          अरूण राव

                                       ।

                                          योगेश राव 

नोट:- रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र आनंद राव के वंशज झाँसीवाला सरनेम के नाम से इंदोर मे निवास करते है।

                                      🙏करणसिंह बोरज तँवरान🙏 


परिचय


   झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ? वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी, अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली।1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब इतिहासाच्यसहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदरराव का इकलौता वर्णन छपा।महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया, उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे।आइये दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं 15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई, तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे।मां साहेब (महारानी_लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए, मगर ऐसा नहीं हुआ।डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिशराज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी, मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा।इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे,फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा।मां साहेब को ग्वालियरकी लड़ाई में शहादत मिली, मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था, मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं, इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे, नन्हें खान रिसालेदार, गनपत रावरघुनाथसिंह और रामचंद्र रावदेशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई, 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई, असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया, किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली, रघुनाथराव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे, मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी, देखते-देखते दो साल निकल गए. #ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें,मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे।हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया, मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की,उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा।फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था,सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े, मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी।इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया।दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे, दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं। जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है, दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया। अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए, कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे , अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं। 

       

                                        

Friday, June 11, 2021

राम प्रसाद तोमर(राम प्रसाद बिस्मिल)

Ram Prasad Singh Tomar(Ram Prasad Bismil)

प. रामप्रसाद बिस्मिल जी का वास्तविक नाम रामप्रसाद सिंह तोमर था घर पर इनको प्यार से रामसिंह भी बोलते थे, वो कई भाषाओं के जानकार थे, उन्होंने कई कविताएँ भी लिखी, वो वेदों और उपनिषदों के ज्ञाता थे जिसके कारण उन्हे पंडित जी बोलते थे।


रामप्रसाद बिस्मल के दादा जी मूल रुप से ग्वालियर राज्य से थे। बिस्मिल के दादा जी ठाकुर नारायण सिंह तोमर का पैतृक गांव बरबाई था। यह गांव तत्कालीन ग्वालियर राज्य में चम्बल नदी के बीहड़ों के बीच स्थित तोमरघार क्षेत्र के मुरैना जिले में था और वर्तमान में यह मध्य प्रदेश में है। यहां के निवासी निर्भीक, साहसी और अंग्रेजों से सीधे रुप से चुनौती देने वाले थे। यहां लोगों का जब मन करता वो अपनी बन्दूकें लेकर नदी पार करके उस क्षेत्र के ब्रिटिश अधिकारियों को धमकी देकर वापस अपने गांव लौट आते। रामप्रसाद में भी यहीं का पैतृक खून था जिसका प्रमाण उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्तिकारी गतिविधियों को कार्यान्वित करके दिया। बिस्मिल के दादाजी नारायणसिंह को पारिवारिक झगड़ों के कारण अपना गांव छोड़ना पड़ा। नारायण सिंह अपने दोनों पुत्रों मुरलीधर सिंह (बिस्मिल के पिता) और कल्याणमल सिंह को लेकर शाहजहांपुर आ गए थे।
इनके दादाजी ने शाहजहांपुर आकर एक दवा बेचने वाले की दुकान पर 3 रुपए महीने की नौकरी की। नारायण सिंह के यहां आने के समय इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ रहा था। इनकी दादी ने आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए घरों में जाकर पिसाई का काम करना शुरु कर दिया। इनके परिवार ने मुसीबतों का सामना करके अनेक कष्टों के बाद स्वंय को स्थापित करके समाज में अपनी प्रतिष्ठित जगह बनाई। इनके दादाजी ने कुछ समय बाद नौकरी छोड़कर पैसे, दुअन्नी, चवन्नी आदि बेचने की दुकान शुरु कर दी जिससे अच्छी आमदनी होने लगी। नारायणसिंह ने अपने बड़े बेटे को थोड़ी बहुत शिक्षा दिला दी और जी-जान से मेहनत करके एक मकान भी खरीद लिया। बिस्मिल के पिता, मुरलीधर सिंह के विवाह योग्य होने पर इनकी दादी ने अपने मायके में इनका विवाह करा दिया। मुरलीधर सिंह अपने परिवार के साथ कुछ समय अपने ननिहाल में रहने के बाद अपने परिवार और पत्नि को विदा करा कर शाहजहांपुर आ गए।
शाहजहांपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में मुरलीधर सिंह उनकी पत्नी मूलमती को जन्मे बिस्मिल अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो अंगुलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी - 'यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।'

माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था तो ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नाम का अक्षर र पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे इसलिए बालक का नाम रामप्रसाद सिंह रखा गया। मां मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिए था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे। रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी मां एक पुत्र खो चुकी थीं। इसलिए जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आंगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आंगन के दो-चार चक्कर लगाए और फौरन मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया।


पृथ्वीराज तोमर(Prathviraj Tomar)

पृथ्वीराज तोमर पृथ्वीराज तोमर (1167-1189 ई.) दिल्ली का तोमर शासक था। पृथ्वीराज तोमर अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान के समकालीन राज...